ग़ज़ल =
रोज ज़मीं को ओढ़ते बिछाते हैं।
भूखे ग़रीब की ज़बाँ समझतेहैं।
न रख मुझे उल्फत के तिलिस्म में।
हम इश्क़ की इम्तहां समझते हैं।
वो तोड़ गया है ऐतबारे हस्ती।
जिसे दिल से रहनुमा समझते हैं।
कोई भी चला न " मजबूर" दो कदम।
अब खुद को ही हमनवां समझते हैं।
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