Friday, April 25, 2014
Thursday, April 24, 2014
तन्हा शेर
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पुकारता है बेवजह तेरा शहर नहीं।
तेरी रहगुजर में है मेरा घर कहीं।
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हुए हम फ़ना तो क्या मुहब्बत जिन्दा है।
इक शम्मा बुझ गयी सौ चिराग़ फिर जलेंगे।
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कौन जाने हे मेरे पेट का दरद ?
जो रोटी मिली तो सब्जी नदारद।
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वो सुनता नहीं है ,मैं कहता रहता हूँ।
क्या सोंचता है यही सोंचता रहता हुँ.
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Monday, April 21, 2014
Sunday, April 20, 2014
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तुम कनाडा में हो
या
जर्मनी में
तेरा -मेरा सूरज एक है
फर्क है तो बस इतना
तुम शब्दों के महल में हो
मैं अहसास की झोपड़ी में
मगर साथी -
नींद की बिस्तरें तो एक -सी हैं
ढलती शाम की खुश्बूएं तो मिलती जुलतीं सी हैं
क्या ओस की बूंदों में
अपने वतन का चेहरा नहीं दिखता ?
जादुई हवाओं में
देश के अनकहे सपने नहीं होते ?
किसी मीठे पोखर के जल में
दादी -माँ की कहानी नहीं दिखती ?
फूलों की मुस्कराती मासूम चहरे पे
अपने गाँव के चौपाल नहीं दिखते ?
क्या साँझ की आरती में
कान्हा की बांसुरी नहीं बजती ?
सुबह की किरणे
सफ़ेद कबूतरों की याद नहीं दिलाती ?
लौट आ साथी
गलियों में
घुंघरुओं की सदा तेरा हाल पूछे है
दोस्तों की ग़ज़लें
खामोश हैं तुमबिन
कांच की गोलियाँ
उँगलियों के इंतेखाब में हैं
कही देर न हो जाये
बूढी ऑंखें बुझ न जाएँ
हाँथ की मेहंदी झर न जाएँ
निकल आ नकली दुनिया से
दुआओं के आँचल में सर रखके सोजा
मै जानता हूँ तू सोया नहीं एक पल
वतन से दूर
किसी को नींद आती है ?
वतन की दहलीज भी सोई नहीं
तेरे कदमों की आहट के वगैर।
Thursday, April 17, 2014
सुनो ज़िन्दगी ,
तुम मखमली ,रेशमी बिस्तरों पे लेटकर लम्हों की तस्वीरें देखने में मसरूफ हो और मैं मुस्कुराते काले शिलाखंडों के बीच बैठ खुदा की बनाई कलाकृति निहार रहा हूँ। कई जागती रातों में तुम गुलाबी सपनो के स्पर्श से मुस्कुराती रही हो ,मगर मै शबनमी साँझ के पैरहन मे खुश्बूओं को हर पल जी रहा हूँ। तुम बंद कमरे के इतिहास को पढ़ रही हो और मैं बगीचे के मासूम फूलों से गुफ्तगूं कर रहा हूँ। तुम कंक्रीट के जंगलों की दगाबाज रिश्तों को जीने में मस्त हो और मैं
Tuesday, April 15, 2014
नामुराद लम्हों के परिंदे
सुन्दर है
नदियों की परिकथा
लेकिन इससे
प्यासे होटों का बाबिस्ता क्या
समुन्दर की स्याही
सितारे बनके
आकाश के कागज़ पे उतरे
लेकिन इससे
उदास मन के खामोश लम्हों को क्या ?
काली जुल्फों की रेशमी हवाएँ
संगीत सुना सकती है
लेकिन इससे
सर्द होते
मेरी धड़कनो को क्या ?
मखमली फिजाओं की जादूगरी
घर की दहलीज तक आ सकती है
लेकिन इससे
स्याह होते चहरे को क्या ?
अरे ,नामुराद लम्हों के परिंदे
गीत मत गा
बुझते चूल्हों को जला
टूटते खाबों को सजा।
Tuesday, April 1, 2014
khuda ko
सूरज की रौशनी की क्या गरज मुझको।
मैंने चिरागों को घर में जला रखा है।
मुझसे दुनिया खफा है तो खफा ही रहे।
मैंने सांसों में ख़ुदा को बसा रखा है।
मैंने चिरागों को घर में जला रखा है।
मुझसे दुनिया खफा है तो खफा ही रहे।
मैंने सांसों में ख़ुदा को बसा रखा है।
khayalon ke tukre
मुस्सर्रत हैं बेशुमार पर कुछ कमी सी है।
मुस्कुराती हुई आँखों में नमी सी है।
खाबों को छू नहीं सकता आसमां सा है।
दामन की रंगीं धूप भी ज़मीं सी है।
मुस्कुराती हुई आँखों में नमी सी है।
खाबों को छू नहीं सकता आसमां सा है।
दामन की रंगीं धूप भी ज़मीं सी है।
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