भूख और कविता
आँखे बहती रहीं हैं चुपचाप
कभी पलकों के पार गयी
कभी जज्ब कर गयी
नन्ही उंगलियां बाजुओं को तरसीं
कभी मिट्टीओं को कुरेदती रहीं
कभी सूखे होटों के पास ठिठकी
आज भी कलम में रौशनाई नहीं
मजबूरियां बहतीं हैं
शब्दों में /शब्दों के बाहर
और शब्द
कोई फरही -फुट्टा नहीं
कि खाली पेट के गणित को
सुलझा ले
और आदर्शों के पानी से
होटों की पपड़ियों को गीला कर लें
हाँ ,नींद की रेशमी बिस्तर है
जहाँ सदियों से जागती/सोती हैं
मेरी भूख /मेरी कवितायेँ।
आँखे बहती रहीं हैं चुपचाप
कभी पलकों के पार गयी
कभी जज्ब कर गयी
नन्ही उंगलियां बाजुओं को तरसीं
कभी मिट्टीओं को कुरेदती रहीं
कभी सूखे होटों के पास ठिठकी
आज भी कलम में रौशनाई नहीं
मजबूरियां बहतीं हैं
शब्दों में /शब्दों के बाहर
और शब्द
कोई फरही -फुट्टा नहीं
कि खाली पेट के गणित को
सुलझा ले
और आदर्शों के पानी से
होटों की पपड़ियों को गीला कर लें
हाँ ,नींद की रेशमी बिस्तर है
जहाँ सदियों से जागती/सोती हैं
मेरी भूख /मेरी कवितायेँ।