Sunday, March 9, 2014

सुनो  ज़िंदगी ,
                    मैं ,मेरी तन्हाई और तुम हो। किसी से कुछ कह नहीं सकता ,क्योंकि मेरे शब्दों के अर्थ किसी के पल्ले नहीं पड़ते । उदासिओं के पेड़ से टपकते शबनमी बूंदों को देखो और कहो कि क्या ये मेरे अश्कों की बूँदें नहीं हैं ?ये सहराओं की सदाएं मेरे दर्द की दास्ताँ नहीं कह रहे हैं ?सागर की लहरें साहिल तक आके दम तोड़ रहीं हैं ठीक उसी तरह जिस तरह शाम ढले मेरी कल्पनाएँ काली चट्टानों के बीच सांसों से सम्बन्ध तोड़ देती हैं। फिर भी मुसर्रतों के मौसम जवां है क्योंकि तुम हो रगो में दौडती हुई किसी मासूम बच्ची की तरह। तुम्हारीखूबसूरती के सामने तमाम रंजों ग़म कपूर की गंध तरह उड़ जातें हैं गोया उनका साथ लाजिम नहीं। जीने और जिन्दा रहने की जादूगरी तो तुमने ही तो दी है।
                                            चीखें तो बस दो चार कदम ही चली थी।
                                           चुप्पी  तो मीलों सदियों  तक  चली थी।
                                           लफ्ज तो सरहदों के आस पास सिमट गए।
                                            मुहब्बत चाँद तारों के पार  तक गयी थी।
सुनो ज़िन्दगी ,
                     तुमसे बेहतर हमनवां ,हमसफ़र कोई नहीं। सब तुम सा दिखतें तो हैं पर तुमसा कोई नहीं। ये ज़िस्मों पे सजावट करनेवाले ,कंक्रीट के जंगल में रहने वाले ,क्य़ा जाने तुम्हारी खूबसूरती के खामोश रंगों को ?सब देह के भूगोल और आकर्षण के गणित के महारथी हैं ,नरम अहसास की ज़बान इन्हे समझ नहीं आती। चिनार के छाँव तले इन्हे तेजाबी धूप सी लगती है। झीलों से खेलती/लौटती सुरमई हवाओं को अपनी दहलीज के अंदर आने नहीं देते। दरीचे खुशबूओं के इंतजार में सो जाती हैं चुपचाप। मकां घर नहीं बन पाता। आरती की लौ भी सिमट जाती है  " अपनी हथेलिओं के रेशमी क़ब्रगाह में"
                                              शाख से टूटे पत्तों का सफ़र याद है।
                                              बूढी बस्ती का वो तन्हा शजर याद है।
                                             वो दर ,वो दरीचे ,वो आँगन के सितारे।
                                             दादी माँ की कहानियों का घर याद है।
आज बस इतना ही ,देखो परिंदों के साथ खाबों के घर जाना है ,सिंदूरी साँझ के ढलने तलक। विदा। 
       
                       

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