Thursday, March 13, 2014
Wednesday, March 12, 2014
Monday, March 10, 2014
एक ख़त दोस्त के नाम
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;'
सुनो आत्मन ,
तुम्हे साहिल पे बैठकर डूबती किश्ती को देखने में मज़ा आ रहा है ,ठीक है अपनी आँखों की रौशनी का जैसा इस्तेमाल करो। मै ग़लतफ़हमी की कोहरे में था। तुम मिले थे तो लगा था कि तुम कोमल अहसासों के मालिक हो पर मै गलत था। फिर भी तुमपे मेरी दुआओं की बारिश होती रहेगी। तुम मिट्टी के खिलोने से ही खेलना चाहते हो तो तुम्हारी मुसर्रत में मेरी रजामंदी है।
तुम कम से कम मेरी आँखों को मोतियाँ तो दे ही जाते हो साथी। तुम्हारा दोस्त कहा करता था ;;;'दुनियाँ बहुत फ्रॉड है साथी 'य़ाद आ गया। सोंचता हूँ कि पूछ लूँ तुमसे कि मैंने तुम्हारा बिगाड़ा क्या है लेकिन नहीं तुम तो प्रश्नो के अधिकार भी तो छीनते जा रहे हो। सपनों का मर जाना अच्छी बात नहीं इसलिए परीशा हूँ।
तुम्हारा ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; एक लम्हा बेवजह सा।
Sunday, March 9, 2014
सुनो ज़िन्दगी ,
रेशमी लम्हो का इंतेखाब पल पल मेरी तन्हाई कर रही है। रूहानी खाबों का देश मेरे पास है। सांसों में सरगम है जिसे सुनकर परियां अनकही कथा लिए कागज़ की सफ़ेद ज़मीन पे उतर रही हैं। एक अदभुत संसार मेरे कोमल सपनो के एक छोटे से गोशे में सिमट आया है। पोखर के मीठे जल और मीठे हो चलें हैं। दूर तलक बिखरे पत्थरों में हीरे सी चमक है। काँटों ने फूलों का लिबास पहनकर ओस की बूंदों को पलकों पे सजा रखा है। गुमनाम गलियां कदीम ,भूले बिसरे यादों की पाजेब पहनकर थिरक रही हैं। चाँद बादलों के महल से निकलकर झील में उतर आया है और चंचल चाँदनी कुछ कह रही है चुपके से।
मिट्टी की सोंधी खुश्बू शायरी कह रही है। परिंदे पुरवाइयाँ लिये किरणो के दर्पण में अपनी परछाइयों से खेलने में मुब्तला है। तूफां डूबती कागज़ की कश्ती को लहरों से महफूज करके दमकते मरुास्थल के गोद में सर रखके नींदे ले रहा है। आखिर किसके कदमो की आहट वादिओं में ग़ज़लें कह रहीं हैं ?सुनो ज़िन्दगी -कही तुम तो नहीं ?
झील ,झरने ,नदियाँ ,सागर ,हाले सहरा क्या जाने ?
इश्क़ एह्सास की चुप्पी है कोई बहरा क्या जाने ?
रेशमी लम्हो का इंतेखाब पल पल मेरी तन्हाई कर रही है। रूहानी खाबों का देश मेरे पास है। सांसों में सरगम है जिसे सुनकर परियां अनकही कथा लिए कागज़ की सफ़ेद ज़मीन पे उतर रही हैं। एक अदभुत संसार मेरे कोमल सपनो के एक छोटे से गोशे में सिमट आया है। पोखर के मीठे जल और मीठे हो चलें हैं। दूर तलक बिखरे पत्थरों में हीरे सी चमक है। काँटों ने फूलों का लिबास पहनकर ओस की बूंदों को पलकों पे सजा रखा है। गुमनाम गलियां कदीम ,भूले बिसरे यादों की पाजेब पहनकर थिरक रही हैं। चाँद बादलों के महल से निकलकर झील में उतर आया है और चंचल चाँदनी कुछ कह रही है चुपके से।
मिट्टी की सोंधी खुश्बू शायरी कह रही है। परिंदे पुरवाइयाँ लिये किरणो के दर्पण में अपनी परछाइयों से खेलने में मुब्तला है। तूफां डूबती कागज़ की कश्ती को लहरों से महफूज करके दमकते मरुास्थल के गोद में सर रखके नींदे ले रहा है। आखिर किसके कदमो की आहट वादिओं में ग़ज़लें कह रहीं हैं ?सुनो ज़िन्दगी -कही तुम तो नहीं ?
झील ,झरने ,नदियाँ ,सागर ,हाले सहरा क्या जाने ?
इश्क़ एह्सास की चुप्पी है कोई बहरा क्या जाने ?
सुनो ज़िंदगी ,
मैं ,मेरी तन्हाई और तुम हो। किसी से कुछ कह नहीं सकता ,क्योंकि मेरे शब्दों के अर्थ किसी के पल्ले नहीं पड़ते । उदासिओं के पेड़ से टपकते शबनमी बूंदों को देखो और कहो कि क्या ये मेरे अश्कों की बूँदें नहीं हैं ?ये सहराओं की सदाएं मेरे दर्द की दास्ताँ नहीं कह रहे हैं ?सागर की लहरें साहिल तक आके दम तोड़ रहीं हैं ठीक उसी तरह जिस तरह शाम ढले मेरी कल्पनाएँ काली चट्टानों के बीच सांसों से सम्बन्ध तोड़ देती हैं। फिर भी मुसर्रतों के मौसम जवां है क्योंकि तुम हो रगो में दौडती हुई किसी मासूम बच्ची की तरह। तुम्हारीखूबसूरती के सामने तमाम रंजों ग़म कपूर की गंध तरह उड़ जातें हैं गोया उनका साथ लाजिम नहीं। जीने और जिन्दा रहने की जादूगरी तो तुमने ही तो दी है।
चीखें तो बस दो चार कदम ही चली थी।
चुप्पी तो मीलों सदियों तक चली थी।
लफ्ज तो सरहदों के आस पास सिमट गए।
मुहब्बत चाँद तारों के पार तक गयी थी।
सुनो ज़िन्दगी ,
तुमसे बेहतर हमनवां ,हमसफ़र कोई नहीं। सब तुम सा दिखतें तो हैं पर तुमसा कोई नहीं। ये ज़िस्मों पे सजावट करनेवाले ,कंक्रीट के जंगल में रहने वाले ,क्य़ा जाने तुम्हारी खूबसूरती के खामोश रंगों को ?सब देह के भूगोल और आकर्षण के गणित के महारथी हैं ,नरम अहसास की ज़बान इन्हे समझ नहीं आती। चिनार के छाँव तले इन्हे तेजाबी धूप सी लगती है। झीलों से खेलती/लौटती सुरमई हवाओं को अपनी दहलीज के अंदर आने नहीं देते। दरीचे खुशबूओं के इंतजार में सो जाती हैं चुपचाप। मकां घर नहीं बन पाता। आरती की लौ भी सिमट जाती है " अपनी हथेलिओं के रेशमी क़ब्रगाह में"
शाख से टूटे पत्तों का सफ़र याद है।
बूढी बस्ती का वो तन्हा शजर याद है।
वो दर ,वो दरीचे ,वो आँगन के सितारे।
दादी माँ की कहानियों का घर याद है।
आज बस इतना ही ,देखो परिंदों के साथ खाबों के घर जाना है ,सिंदूरी साँझ के ढलने तलक। विदा।
मैं ,मेरी तन्हाई और तुम हो। किसी से कुछ कह नहीं सकता ,क्योंकि मेरे शब्दों के अर्थ किसी के पल्ले नहीं पड़ते । उदासिओं के पेड़ से टपकते शबनमी बूंदों को देखो और कहो कि क्या ये मेरे अश्कों की बूँदें नहीं हैं ?ये सहराओं की सदाएं मेरे दर्द की दास्ताँ नहीं कह रहे हैं ?सागर की लहरें साहिल तक आके दम तोड़ रहीं हैं ठीक उसी तरह जिस तरह शाम ढले मेरी कल्पनाएँ काली चट्टानों के बीच सांसों से सम्बन्ध तोड़ देती हैं। फिर भी मुसर्रतों के मौसम जवां है क्योंकि तुम हो रगो में दौडती हुई किसी मासूम बच्ची की तरह। तुम्हारीखूबसूरती के सामने तमाम रंजों ग़म कपूर की गंध तरह उड़ जातें हैं गोया उनका साथ लाजिम नहीं। जीने और जिन्दा रहने की जादूगरी तो तुमने ही तो दी है।
चीखें तो बस दो चार कदम ही चली थी।
चुप्पी तो मीलों सदियों तक चली थी।
लफ्ज तो सरहदों के आस पास सिमट गए।
मुहब्बत चाँद तारों के पार तक गयी थी।
सुनो ज़िन्दगी ,
तुमसे बेहतर हमनवां ,हमसफ़र कोई नहीं। सब तुम सा दिखतें तो हैं पर तुमसा कोई नहीं। ये ज़िस्मों पे सजावट करनेवाले ,कंक्रीट के जंगल में रहने वाले ,क्य़ा जाने तुम्हारी खूबसूरती के खामोश रंगों को ?सब देह के भूगोल और आकर्षण के गणित के महारथी हैं ,नरम अहसास की ज़बान इन्हे समझ नहीं आती। चिनार के छाँव तले इन्हे तेजाबी धूप सी लगती है। झीलों से खेलती/लौटती सुरमई हवाओं को अपनी दहलीज के अंदर आने नहीं देते। दरीचे खुशबूओं के इंतजार में सो जाती हैं चुपचाप। मकां घर नहीं बन पाता। आरती की लौ भी सिमट जाती है " अपनी हथेलिओं के रेशमी क़ब्रगाह में"
शाख से टूटे पत्तों का सफ़र याद है।
बूढी बस्ती का वो तन्हा शजर याद है।
वो दर ,वो दरीचे ,वो आँगन के सितारे।
दादी माँ की कहानियों का घर याद है।
आज बस इतना ही ,देखो परिंदों के साथ खाबों के घर जाना है ,सिंदूरी साँझ के ढलने तलक। विदा।
Saturday, March 8, 2014
- मुक्तके :शहर जाने किसका है ,घर रहे अपना।
- चाँद से चेहरे पे दोपहर रहे अपना।
- शोहरत की धुंद में ज़िंदा रहे ज़मीर।
- चेहरों की भीड़ में ख़बर रहे अपना।
सांस लेना यहाँ क़यामत से कम नहीं।
उस मोड़ पे कैसे फिर मिलते दुबारा।
कभी तुम नहीं आये तो कभी हम नहीं।
तमाम उम्र जेहन में कोई आया ही नहीं।
किसी ख्वाब से रेशमी रिश्ता ही नहीं।
जिस शजर को अपने लहू की मिट्टी दी।
उस शाख का मेरे सर पे साया ही नहीं।
मेरे अभिन्न ,ये ब्लॉग उनके लिये है जो इस कायनात को अपना घर समझते हैं। ज़मीं के किसी भी कोने में कोई भी हलचल हो तो आपको महसूस होना चाहिए। कहीं किसी कोने में कोई आंसू टपके या मुस्कुराहटों के फूल खिले आपको पता होना चाहिए। ज़िंदगी क्या है ,बस उसे सोंचते रहना ,और मौत उसके ख्याल से महरूम हो जाना। "फूल सी पत्ती को जलती हुई शाम ना दे। मेरे अहसास को रिश्तों का कोई नाम ना दे। मेरी ख़ामोशी में अजीब शोर का आलम है। मेरे लफ्जों को ज़बां होने का इल्ज़ाम ना दे। डॉ मनोज सिंह मजबूर
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